हमारी संस्कृति, मिट्टी बनी, जो थी कभी सोना !
बड़ी जिल्लत सी लगती है,यूँ अपने,देश को खोना !
जलाया सिंध को जिसने,सभी थे सिंधी,पर मुस्लिम,
थे हम भी सिंधी, मगर हिन्दू ,हमें बे घर पड़ा होना !
यहाँ हम खुश हैं सशरीर, पर महसूस होता है,
हमारी आत्मा पे जख्म और टूटा सा इक कोना !
कि जैसे मछलियों को, रेत दो ,पानी हटा कर के,
करो महसूस छटपटाहट वो , फिर जिंदगी ढ़ोना !
जिन्होंने लूटा, मारा था ,पड़ोसी थे सभी सारे,
कोई भी बाहरी न था, इन्हीं बातों का है रोना !
अभी भी खेल भारत में है जारी, टोपी वालों का,
हश्र तुम सिंधियत का देख,सम्भलो और समझो ना !
------------------------- तनु थदानी
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