निपटते एक लोटे राख में , फिर भी फुटानी है !
मेरे भीतर जो था उसूल, वो तोड़ा नहीं मैंने,
गया कुचला वो, जिम्मेदारियों की ,कारस्तानी है !
ये तो हो गया खिलवाड़, माना खेल जीवन को,
इसी जीवन के खेल में ही, सांसे हार जानी है !
अकल को खोद कर ,प्रगति के ,गढ्ढे बना दिये,
सभी को है पता कि,अकल को न, अक्ल आनी है !
तेरे सिर पे जो 'मैं' है, वो तुम्हें, देगा नहीं उठने,
मगर उस 'मैं' को पालो, ये कहाँ की बुद्धिमानी है ?
हमेशा से ,ये ही होता है, सबको सब पता होता,
मगर लगता है ये कि, हमको ये ,बातें बतानी है!
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