क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में शामिल हूँ मात्र दिनचर्या की तरह ? ऱोज ही पूजाघर में साथ होती हो भक्ति के , रसोई में साथ होती हो स्वाद के , बाहों में साथ होती हो आसक्ति के , मगर इसमें प्रेम कहाँ है ?? आओ हम दोनों खोजें मिल कर विश्वास के गर्भ से पैदा हुआ प्रेम , जिसने अभी ठीक से चलना भी नहीं था सीखा , छोड़ दी हम दोनों ने उसकी ऊँगली ! नहीं मालूम उस नवजात को मर्यादा की चौहद्दी , गर्म साँसों के कंटीले जंगल में फंसे हम अपने प्रेम की कराह सुन तो सकते हैं , मगर नहीं खोज पा रहे उसके अस्तित्व को ! मेरा विश्वास है वो मिलेगा , जरुर मिलेगा ! मगर मुझे अपनी दिनचर्या से मुक्त करोगी तब , मुझे अपनी अँगुलियों औं हाथों में एक दास्ताने की तरह पहनोगी जब ! दसों उँगलियों सी पूर्णत : मेरे भीतर आओगी , यकीन मानो एक भी कांटा नहीं चुभेगा , और तभी प्रेम को खोज पाओगी !!
सब पूछते इस उम्र तक , कितना लिया कमा ? मेहनत की रोटी घर में है , इज्ज़त की है शमां ! तुलना तो कभी कर नहीं , अपनी इमारत से , मैंने तो घर बनाया पर , तूने केवल मकां ! जेबें गरम , बिस्तर नरम , फिर छटपटाहट क्यूँ ? सुख मिल सके सब खोजते , ऐसी कोई दुकां ! मैं संत नहीं हूँ मगर , ये जानता हूँ मैं , सब छोड़ कर के जाओगे , जो कुछ किया जमा ! गिन भी न सका कोई , मेरे घर की कमाई , मुझको कमाया माँ ने ओं , मेरी कमाई माँ !
हमारे "मैं " के पर्वत से , रोजाना हम ही तो ढहते ! बताओ अपनी "मैं " की जिद को, भला क्यूँ रहे सहते ? हमें जो - जो पसंद आता , वो हासिल करने को जीते , कि जो हासिल है उसके साथ ही , हम क्यूँ नहीं रहते ? कि जब तुम इक ख़ुशी पर , बार- बार हंस नहीं पाते , बताओ एक ही दुःख पर ,ये आँसू रोज क्यूँ बहते ? तुम्हारे साथ माँ रहती है , ऐसा क्यूँ जताते हो ? क़ि हम सब माँ के संग रहते हैं,ऐसा क्यूँ नहीं कहते ??
हमारी हो ना हो मर्जी , बहुत कुछ छूट जाता है ! हमारी उम्र - शक्ल को , समय ही लूट जाता है ! तुम्हारी ज़िद है ओखली , अहंकार है मूसल , तुम्हारे सामने जो तुमको , अक्सर कूट जाता है ! कई बरसों में जतनों से ,जो रिश्ता ठोस है बनता , वही रिश्ता महज इक बात से ही टूट जाता है ! गले मिलने में गंर संकोच हो , तो मुस्कुरा देना , महज मुस्कान से शिकवा- गिला सब फूट जाता है ! कहीं मेहंदी औ चंदा से भी , करवाचौथ है होता ? सभी व्रत व्यर्थ हैं होते , जब साजन रूठ जाता है !