शातिर दिमाग से खेलते हैं , नादान दिल से खेलते हैं , बेवकूफ शरीर से खेलते हैं , हम खुद के भीतर भी इन तीनो स्थितियों को अपनी मृत्यु तक झेलते है !
हम नहीं हैं किसी भी पशु के विकास - यात्रा के यात्री हमने खुद के भीतर पशुता का विकास किया है ! बेहतर हैं पशु हमसे कि स्पष्ट है उनका लक्ष्य -भोजन , मगर हमारे लक्ष्य तक नहीं हैं निश्चित !
हम कपड़े ओढ़ कर शर्मिन्दा हैं , मृत भावनाओं के साथ ज़िंदा हैं , भीड़ मे अकेलेपन के साथ हैं , अकेलेपन में यादों से खेलते हैं ! मात्र साँसों से दोस्ती के लिये , रोज नया आवरण , खुद के ऊपर बेलते हैं !
हे ईश्वर ! क्यूँ है हमारी जीवन - यात्रा अनिश्चित ? क्यूँ हमारे साथ चलती एक निन्दा है ? क्यूँ हैं बनाते खुद के भीतर खाई अहंकार की ? आखिर क्यूँ खुद ही को उसके भीतर ढकेलते हैं ??