यहाँ तो देह-सुख ही जिन्दगी का , मर्म हो गया !
जली सब भावनायें , देह - मुद्दा गर्म हो गया!
नज़र के सामने ही जब हया की,अर्थियां गुजरी,
तभी से मुहं छिपाना खुद से ,उसका धर्म हो गया !
वो इतनी जिल्लतों के बाद भी,जिन्दा रहा क्यूँ की ,
माँ उसकी जी सके सुकूं से , सो बे-शर्म हो गया !
किसी रद्दी तरह बढ़ता रहा , अम्बार उम्र का ,
तभी तो वक्त काटना भी , आज कर्म हो गया !
अभी बस कल ही तो रोते हुए के , आंसू थे पोछे ,
तभी से हाथ मेरा खुरदुरा था , नर्म हो गया !
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