सबकी तरह जाते समय बस, इक कफ़न पाया !
नौटंकियों के बीच खेला , खेल कृपा का ,
अपनी जरुरत भर का इक , भगवान् बनाया !
मैंने बड़े करीब से , देखा है इक पतन ,
कि भूख में खुद का किसी ने ,मांस था खाया !
जिसने मुझे जो कुछ दिया,सब कुछ दिया लौटा,
गाली हो या इज्ज़त मैं ,कुछ रख नहीं पाया !
मैं क्यूँ करूँ श्रृंगार , जो, प्रेमी हूँ ईश्वर का ,
बस चाहिए उसको ह्रदय , न काया न माया !
माँ शब्द ही मिले नहीं , पावन कोई तुमसे ,
बस इसलिए तुझ पे मैं ग़ज़ल ,लिख नहीं पाया !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें