मिली तभी से सर पे मेरे , मौत की चुनरी रही ओढ़ती !
वही जिन्दगी संग रही ओं , रिश्ते - नाते रही जोड़ती !
खुशियों वाली चादर खुद पे , मैंने तह कर के रक्खी थी ,
काश ! जिन्दगी उस चादर को , नहीं छेड़ती ,नहीं मोड़ती !
जिसको अपना मान के भीतर , पाल रहा था मैं दीवाना ,
वही जिन्दगी मेरी उम्र के , घर के ईटे रही तोड़ती !
पूरे ही सम्मान से लेना , देती जो भी यहाँ जिन्दगी ,
लेने पर जो आ जाये तो , साँसे तक भी नहीं छोड़ती !
जिँदगी ना मिलेगी दोबारा।
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