तुम तो धूप थी जाड़े की
जिसको मैंने प्यार से
पकड़ रखा था अपनी दोनों हथेलियों के बीच !
जो हमसे बड़े थे
सभी हँसे थे
कि धूप तो हथेलियों में भरी नजर आती है
अंततः फिसल जाती है !
नहीं फिसली धूप,
उम्र की गर्मियों में
भरी दोपहरी जब
हथेलियों में भरी धूप ने
जला डाला मुझे
तब लगा
नहीं है वो मेरी धूप
ये तो कोई और है
फिर कहाँ गई वो मीठी धूप ??
कोई नहीं रोया की धूप की मिठास खो गई
गौर से देखा जली हथेलियों को
जहां धूप से चिपक मेरी मुस्कान सो गई !
सच कहूँ
धूप को हथेलियों में पकड़ना ही गलत था
धूप को तो आलिंगन में रखना था
तभी वो मेरी हो पाती
जिस दिन धूप मेरी हो जाती
जलती तो मेरे ही भीतर
पर मुझे न जला पाती !!
अच्छी रचना...मेरे ब्लॉग पर आएं...एक योजना है...इसके बारे में बताएं...
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