सोया नहीं था रात भर , तकिया है गवाही !
जिस पर से सिलवटों की नमी, सूख न पायी !
जिसने मेरे विश्वास को , दम घोंट के मारा ,
क्यूँ उसके लिए रो के , सारी रात बिताई ?
सब दूर से देना दुआ ,पर साथ न आना ,
मैं जिस सफ़र पे हूँ वहां ,मंजिल है इक खाई !
कुटिया में रोती एक , बूढी सी मेरी आशा ,
सुराख कर के छत पे ,वहां रौशनी लायी !
उस रौशनी के साथ ही, अंधर जो इक आया ,
उसमे ही शख्सियत थी मेरी , बन गई राई !
धोखे की इक दरार थी , झाँका तो मर गया ,
था नग्न मैं , वजूद पे थी , जम गई काई !
तुम मेरे किस्सों में , क्यूँ ,खुद को ढूंढ़ रहे हो ,
मुझसे ना छिपाना , जो आँखे डबडबा आई !
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