था नाम तक नहीं जब , मजहब मुफ़त में पाया !
थोडा बड़ा हुआ जब , चलना जमीं पे सीखा ,
मस्जिद में कोई पहुंचा , मंदिर में कोई लाया !
चुटिया बनाई लम्बी , टोपी किसी ने पहनी ,
गो-मांस इक ने खाया , सूअर भी इक ने खाया !
माथे से पैर तक हम , जब इक से ही दीखे हैं ,
दूजे से हम ही बेहतर , किसने था ये बताया ?
पढता रहा सुबह से , वो शाम तक किताबें ,
मजहब का कोई मतलब , वो ढूंढ़ नहीं पाया !
पंडित हो या हो मुल्ला , सब खोल के हैं बैठे ,
धर्मों का बूचड़खाना , हमें जानवर बनाया !
कपड़े धरम - धरम के , तुम ओढ़ - ओढ़ घूमे ,
उसने था नंगा भेजा , नंगा ही तो बुलाया !
हमसे कहीं हैं बेहतर , रंगीन ये परिन्दें ,
मंदिर में भी था देखा , मस्जिद में भी था पाया !
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