क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में
शामिल हूँ मात्र दिनचर्या की तरह ?
ऱोज ही पूजाघर में
साथ होती हो भक्ति के ,
रसोई में साथ होती हो स्वाद के ,
बाहों में साथ होती हो आसक्ति के ,
मगर इसमें प्रेम कहाँ है ??
आओ हम दोनों खोजें मिल कर
विश्वास के गर्भ से पैदा हुआ प्रेम ,
जिसने अभी ठीक से चलना भी नहीं था सीखा ,
छोड़ दी हम दोनों ने उसकी ऊँगली !
नहीं मालूम उस नवजात को मर्यादा की चौहद्दी ,
गर्म साँसों के कंटीले जंगल में फंसे
हम अपने प्रेम की कराह सुन तो सकते हैं ,
मगर नहीं खोज पा रहे उसके अस्तित्व को !
मेरा विश्वास है वो मिलेगा ,
जरुर मिलेगा !
मगर मुझे अपनी दिनचर्या से मुक्त करोगी तब ,
मुझे अपनी अँगुलियों औं हाथों में
एक दास्ताने की तरह पहनोगी जब !
दसों उँगलियों सी पूर्णत : मेरे भीतर आओगी ,
यकीन मानो
एक भी कांटा नहीं चुभेगा ,
और तभी प्रेम को खोज पाओगी !!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें