हमारे "मैं " के पर्वत से , रोजाना हम ही तो ढहते !
बताओ अपनी "मैं " की जिद को, भला क्यूँ रहे सहते ?
हमें जो - जो पसंद आता , वो हासिल करने को जीते ,
कि जो हासिल है उसके साथ ही , हम क्यूँ नहीं रहते ?
कि जब तुम इक ख़ुशी पर , बार- बार हंस नहीं पाते ,
बताओ एक ही दुःख पर ,ये आँसू रोज क्यूँ बहते ?
तुम्हारे साथ माँ रहती है , ऐसा क्यूँ जताते हो ?
क़ि हम सब माँ के संग रहते हैं,ऐसा क्यूँ नहीं कहते ??
"तुम्हारे साथ माँ........ ऐसा क्यूँ नहीं कहते?"
जवाब देंहटाएंअन्तिम पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी है।
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