हमारे पाप- पुण्य -कुम्भ, स्वीकारती झुक झुक !
नदी तो इक नजरिया है, कभी होती नहीं बे रुख !
नदी को उंगलियां होती, तो वो भी थाम के पेन्सिल,
लहर पे लिख रही होती, हमारा दुख, हमारा सुख !
बना के बाँध बाटे हैँ, नदी की धार काटे हैं
नदी फिर भी बताती है,की चलता चल, कभी न रुक !
हमें आगाज करता है, ये रुतबा यूँ समर्पण का,
नदी का अनवरत सागर से मिलना, सदियों से बे चुक !
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