मचलता मन भी जब जब, पत्थरों सा जड़ है लगता !
तभी गजलों के घर में ,आंसुओ का दर है लगता !
करे बातें तमाम , मुझसे मेरी तन्हाई,
बताती है कि मेरा दिल ही ,उसको घर है लगता !
क्यूँ मेरी आंखे न गीली हुईं , खुद से बिछड़ के ,
क्यूँ मेरा जिस्म सन्नाटे से,मुझको तर है लगता !
मेरी तन्हाई फिर मुझसे ,लिपट के थरथराई ,
बोली रो के ,सन्नाटे से उसको डर है लगता !
हकीकत ये है कि मैं , तप रहा हूँ , जल रहा हूँ ,
करुं मैं क्या जो मेरा जिस्म, ठंडा गंर है लगता !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें