कोई अल्लाह है कहता , कोई भगवान कहता है !
अरे ! मिलता ये आखिर क्यूँ नहीं , कहाँ ये रहता है ?
कोई घंटा बजाता है , कोई अज़ान है देता ,
कबीरा उस सदी से इस सदी तक, क्यूँ ये सहता है ?
तुम रोये मंदिरों औं मस्जिदों के , टूटने पे क्यूँ ?
तुम रोते क्यूँ नहीं तब, घर, गरीबों का जो ढ़हता है !
हमें तो शर्म है आती , हमारे आचरण पे अब,
वफादारी में कुत्ता तक भी , हमसे आगे रहता है !
चलो इक घर बनाते हैं , वहाँ बचपन बनाते हैं ,
चलो फिर डूब के देखें , जहाँ बस प्रेम बहता है !
अगर तुम प्रेम में डूबे , तो मानव बन के निखरोगे ,
यही मस्जिद भी कहती है ,यही मंदिर भी कहता है !
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