लिपट मैं रोया ,रात समूची ,थी वो प्रेम के शव की काया !
विश्वासों के सन्नाटे में , धोखे ने था मार गिराया !
प्रेम - प्रेम हम चिल्लाते हैं , खुद से भी तो प्रेम नहीं है ,
पूरा जीवन बिता दिया यूँ , बहरों बीच ज्यों गाना गाया !
चुम्बन से आलिंगन तक तो ,बस गर्मी थी साँसों की ही ,
बरसों उलझा रहा इसी में ,प्रेम कहाँ था समझ ना पाया !
लगता तो वो साथ था मेरे ,मरा अचानक क्यूँ कर कैसे
मंडप से भजनों तक पूछा , प्रेम ने आखिर क्या था खाया ?
शाम के आँगन पसरी बूढ़ी , हड्डी के ढाँचे ने रो कर ,
कहा सफ़र हो गया ख़तम अब ,कर दे ईश्वर प्रेम की छाया !
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