भरा ग्लेशियर ग़म का ,गले लगाते झर झर गलता है!
हाल चाल ही तो पूछा था,मन क्यूं शाम सा ढलता है?
मेरा समझौता तो मेरे, चाल - चलन से ऐसा है,
मैं उसे छिपा के चलता हूँ, वो मुझे छिपा के चलता है!
हंसते चेहरे पे आंसू दे, जख्म पे मेरे नमक सी थी,
वो जीवनसाथी नाम लिये,जो रही वही तो खलता है!
जो खोजे परिभाषित सुख को,गढ़ के सुख की परिभाषायें,
अंदर न उसके सुख पलता,न सुख से कभी वो पलता है!
जब जब भी जेब तलाशी केवल, लम्हे निकले रुखे सूखे!
किया प्रेम तो प्रेम क्यूं मांगा, ऐसा प्रेम न फलता है !